कोठी का दरवाज़ा किसी औरत ने खोला था। उस औरत के बदन पर एक भी कपड़ा नहीं था। उसके बाल किसी बरगद की जटाओं जैसे उसके घुटनों तक लटक रहे थे। वो औरत दरवाज़ा खोल कर धीरे धीरे कोठी से बाहर चलने लगी। वो औरत चलते चलते दादा जी के पेड़ के पास आने लगी। उनके हाथ बंदूक़ पर कसे हुए थे, लेकिन हाथ में आने वाले पसीने से वो उनकी पकड़ से फिसलने लगी थी।
यह क़िस्सा 70 के दशक का है जब मेरे दोस्त के दादा जी ने कानपुर के देहात में एक पुरानी कोठी ख़रीदी थी। उस कोठी के साथ काफ़ी और चीजें साथ ही आयीं थीं, मसलन थोड़ा बहुत पुराना फ़र्निचर, बिस्तर, अलमारी, और मेज़ें। और साथ में कई सारे पुराने पेड़ जो कोठी के बाहर के बाग में लगे हुए थे।
पर सबसे आकर्षक चीज़ थी वो लोहे की अलमारी, जिसे खोलना सम्भव ही नहीं हो पाया। वह अलमारी लंदन के किसी ब्राउनिंग नाम की कम्पनी थी और आसपास के सभी चाबी-वाले उसका ताला खोलने में नाकाम हो चुके थे। कई लोग उसे एक तिजोरी बोलते, लेकिन उसका क़द इतना बड़ा था कि दादा जी जैसे 3 लोग उसमें एक साथ आ सकते थे। इसी अलमारी के बारे में सभी घरवाले सोचते रहे कि उस घर में होने वाले एक अजीब वाक़ये ने सब को हैरान करना शुरू कर दिया।
होता यह था कि, हर शुक्रवार की सुबह, घरवालों को कोठी का मुख्य द्वार खुला मिलता और घर के बाहर से एक इंसान के पैरों के निशान घर के अंदर घुसते हुए, उस अलमारी वाले कमरे तक जाते दिखते। वो निशान उस अलमारी के सामने पहुँच कर ख़त्म हो जाते। हर शुक्रवार की सुबह यही नज़ारा मिलता।
घरवाले परेशान थे कि आख़िर कौन उनके घर में घुस रहा है। घर के मुख्य द्वार पर हर तरह के ताले लगाए गए, लेकिन उन तालों के बावजूद, शुक्रवार की सुबह घर का दरवाज़ा पैरों के निशान के साथ खुला मिलता। तालों के बाद घर के दरवाज़े पर बल्लम, और फिर मेज़ कुर्सी भी लगा कर रखी गयीं, की बाहर से दरवाज़ा खोलना बिलकुल भी नामुमकिन हो जाए, लेकिन इस सब से भी कोई फ़ायदा नहीं हुआ। और फिर एक रात, मेरे दोस्त के दादा जी ने खुद ही जाग कर देखना चाहा की आख़िर होता क्या है।
Write a comment ...