चेतावनी: इस कहानी के कुछ अंश विचलित कर सकते हैं। सोच समझकर पढ़ें।
खपड़िया बाबा ने एक आख़िरी मंत्र पढ़ा और उस खून मिले पानी से उस साधु के कटे सर पर एक तिलक लगाया। और फिर, मामा जी ने असम्भव को सम्भव होते देखा।
यह कहानी मेरे मामा जी की है, जिन्होंने 30 की उम्र आने से पहले ही सन्यास ले लिया था।
परंतु मामा जी हमेशा ही धार्मिक नहीं थे। बल्कि गेरुआ ओढ़ने से पहले वो मोहल्ले और गाँव में एक गुंडे की तरह जाने जाते थे। मार पीट और गुंडागर्दी के साथ उनके हाथ कुछ लोगों के खून से भी सन चुके थे। इसीलिए जब वो साधु बने, तो मेरे नाना जी और बड़े मामा को थोड़ी राहत मिली।
मामा जी, अब साल में एक दो चक्कर हमारे घर पर भी लगा जाते। माँ को अब उनपर कुछ ज़्यादा प्यार आने लगा था। मामा जी बदलते मौसम की तरह हमारे यहाँ आते, और एक या दो दिन रुककर फिर निकल जाते।
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