उस साल कड़ाके की सर्दी पड़ी थी। संजय ट्रेन से नीचे उतरा और उसने देखा कि प्लैटफ़ॉर्म पर बिलकुल मरघट जैसा सन्नाटा था। उसने घड़ी की ओर नज़र डाली, रात के एक बज रहे थे। ट्रेन से उतरने वाला वो इकलौता शख़्स था।
यूँ तो संजय इस स्टेशन पर बचपन से आ रहा था, लेकिन रात के इस सन्नाटे में, यह जगह अजीब ही लग रही थी। तभी ट्रेन ने ज़ोर से हुंकार भरी, और संजय यादों की दुनिया से बाहर आ गया। धीरे धीरे उसने स्टेशन के गेट की तरफ़ चलना शुरू कर दिया।
रह रहकर वो स्टेशन से क़स्बे तक जाने वाली सड़क के बारे में सोच रहा था। वो जानता था कि अगले 3 किलोमीटर तक इस सड़क पर उसे कुछ नहीं मिलने वाला था। लेकिन देर रात की ट्रेन से आना काफ़ी ज़रूरी था। पिताजी की तबियत अचानक ही बिगड़ी थी, और वो एक पल भी गँवाना नहीं चाहता था। इसीलिए खबर मिलते ही, वो तुरंत दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँचा, और अपने क़स्बे आने वाली रात की आख़िरी ट्रेन पकड़ ली। पर एक पैसेंजर ट्रेन को आगे निकालने के लिए संजय की डेली ट्रेन को काफ़ी देर तक रोक दिया गया था। इसीलिए जो ट्रेन 11 बजे पहुँचने वाली थी, वो रात के 1 बजे जंक्शन पर आ कर लगी।
स्टेशन से बाहर निकलते ही, संजय के दिमाग़ में कई सारी यादें ताज़ा हो गयीं। कैसे वो पहली बार दिल्ली जाने के लिए पिताजी के साथ इसी प्लैटफ़ॉर्म पर आया था। लेकिन सबसे ज़्यादा यादें उस स्टेशन या प्लैटफ़ॉर्म की नहीं, बल्कि स्टेशन से क़स्बे तक जाने वाली सड़क की थीं।
दरसल, वो सड़क बिलकुल वीरान थी। रात 11 बजे दिल्ली से आने वाली ट्रेन के चक्कर में एक आध टेम्पो वाले उस सड़क पर खड़े रहते थे। पर रात के 1 बजे तो वहां बिलकुल भुतवासा ही हो रखा था।
उसके अलावा, संजय के ज़हन में बार बार इस सड़क के बारे में सुनी कई सारी कहानियाँ हिलोरे मार रही थीं। कैसे वो बचपन में सुनता की इस सड़क पर एक सफ़ेद साड़ी वाली चुड़ैल घूमती है, जो पैदल जा रहे आदमियों को अपना शिकार बनाती है। या फिर कैसे यहां देर रात में चलने वाले टेम्पो और गाड़ियों के सामने अचानक एक सिर कटा बच्चा आ जाता है।
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